जैन विद्या और प्राकृत भाषा को मिलेगी नई उड़ान : पहली बार शुरू होगा डिग्री कोर्स

लखनऊ – जैन कनेक्ट संवाददाता | उत्तर प्रदेश जैन विद्या शोध संस्थान ने ऐतिहासिक कदम उठाते हुए जैन विद्या और प्राकृत भाषा में चार वर्षीय डिग्री कोर्स शुरू करने की घोषणा की है। यह पहला अवसर होगा जब राज्य में प्राकृत भाषा और जैन धर्म के गूढ़ विषयों को लेकर औपचारिक डिग्री पाठ्यक्रम प्रारंभ किया जा रहा है। यह निर्णय पाठ्यक्रम समिति की बैठक के दूसरे दिन लिया गया, जिसे नई शिक्षा नीति के अनुरूप तैयार किया गया है। इस अवसर पर जैन मिलन संस्था के पदाधिकारियों ने पाठ्यक्रम समिति के सदस्यों को सम्मानित कर समाज के सहयोग का आश्वासन दिया।

🔹 चार वर्षीय डिग्री कोर्स को मंजूरी पाठ्यक्रम समिति की बैठक में सोमवार को चार वर्षीय डिग्री कोर्स को स्वीकृति प्रदान की गई, जो नई शिक्षा नीति के अनुरूप होगा।

📚 प्राकृत और जैन विद्या पर केंद्रित होगा कोर्स कोर्स विशेष रूप से जैन धर्म और प्राकृत भाषा के अध्ययन व शोध के लिए तैयार किया गया है।

🎓 विद्वानों को मिलेगा प्राचीन ग्रंथों को समझने का अवसर डिग्री धारकों को प्राचीन जैन ग्रंथों को पढ़ने, समझने और पढ़ाने का प्रशिक्षण मिलेगा।

🏛️ प्राकृत भाषा को क्लासिकल भाषा का दर्जा कोर्स के माध्यम से छात्रों को शास्त्रीय भाषा के रूप में प्राकृत की महत्ता से अवगत कराया जाएगा।

💼 राष्ट्रीय शोध संस्थानों में नौकरी की संभावनाएं इस कोर्स को करने वाले छात्रों को राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित शोध संस्थानों में रोजगार का अवसर प्राप्त होगा।

🧩 स्वरोजगार के लिए भी रहेगा उपयोगी डिग्री के साथ छात्रों को स्वरोजगार के लिए भी योग्य और सक्षम बनाया जाएगा।

📖 160 क्रेडिट का होगा सम्पूर्ण पाठ्यक्रम पूरा पाठ्यक्रम 160 क्रेडिट का होगा जिसमें विषय आधारित गहराई और प्रायोगिक अध्ययन शामिल हैं।

🔍 9 क्रेडिट शोध के लिए होंगे निर्धारित अगले चरण में शोध को ध्यान में रखते हुए 9 क्रेडिट विशेष रूप से निर्धारित किए गए हैं।

🙏 समिति अध्यक्ष व सचिव को किया गया सम्मानित जैन मिलन के पदाधिकारियों ने समिति अध्यक्ष प्रो. अभय कुमार जैन और सचिव अमित अग्निहोत्री का सम्मान किया।

🏛️ संस्थान की स्थापना और उद्देश्य संस्थान की स्थापना 31 जनवरी 1991 को संस्कृति विभाग उत्तर प्रदेश के अधीन एक स्वायत्त संस्था के रूप में हुई थी, जिसका उद्देश्य जैन परंपराओं, तीर्थंकरों की संस्कृति और मानवीय मूल्यों का संरक्षण है।

इस ऐतिहासिक पहल से न केवल प्राकृत भाषा को नई पहचान मिलेगी, बल्कि जैन धर्म की विद्वत परंपरा को भी नई पीढ़ी तक पहुँचाया जा सकेगा। समाज में बौद्धिक जागरूकता बढ़ेगी और जैन दर्शन के गूढ़ ज्ञान को संस्थागत रूप में सहेजा जाएगा।

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