
अक्षय तृतीया-एक ऐसा दिन जो केवल एक तिथि नहीं, बल्कि आत्मकल्याण और सनातन पुण्य की अमर परंपरा का प्रतीक है। वैदिक पंचांग के अनुसार वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाने वाला यह पर्व, हिन्दू और जैन दोनों धर्मों में अत्यंत पवित्र माना गया है। विशेष रूप से जैन धर्म में, यह दिन दान, तप और मोक्ष के प्रथम कदम का प्रतीक है। यह वही दिन है जब प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ) ने अपना वर्षीतप तोड़ा और दान की परंपरा की शुरुआत हुई।
जैन दर्शन में अक्षय तृतीया का महत्व
जैन ग्रंथों के अनुसार, यह दिन एक ऐतिहासिक क्रांति का साक्षी है। जब भगवान ऋषभदेव ने सम्राट का सिंहासन त्यागकर दीक्षा ली, तो उन्होंने छह महीने तक गहन तपस्या की। उपवास और मौन साधना के बाद जब वे आहार के लिए समाज में निकले, तो कोई उन्हें उचित आहार नहीं दे सका। उस युग में दान की परंपरा प्रचलित नहीं थी।
गजपुर (हस्तिनापुर) में पुण्य का आरंभ
भगवान ऋषभदेव जब हस्तिनापुर पहुंचे, वहां के राजा श्रेयांस को अपने पूर्वजन्म की स्मृति जागृत हुई। उन्होंने भगवान को पहचानते हुए गन्ने के रस से आहार दान दिया। यह केवल एक आहार नहीं था, यह था ‘दान’ का प्रथम शास्त्रीय रूप। इसी क्षण को जैन समाज ‘इक्षु तृतीया’ के रूप में मनाता है। यह आहार नवधा भक्ति के साथ दिया गया था — जिसमें श्रद्धा, समर्पण और शुद्ध भावना का समावेश था।
पांच अलौकिक घटनाएं
भगवान के आहार ग्रहण करते ही पांच दिव्य घटनाएं घटित हुईं:
रत्नों की वर्षा
पुष्पों की वर्षा
दिव्य दुन्दुभि की ध्वनि
सुगंधित वायु का प्रवाह
‘अहो दानम्!’ की आकाशवाणी
इन घटनाओं ने न केवल उस क्षण की दिव्यता को दर्शाया, बल्कि यह घोषणा भी की कि धरती पर दान की अमर परंपरा की नींव रखी जा चुकी है।
अक्षय पुण्य का सिद्धांत
जैन धर्म में मान्यता है कि इस दिन किया गया पुण्य कभी क्षीण नहीं होता -यह अक्षय रहता है। यही कारण है कि जैन अनुयायी इस दिन :
आहार दान (मुनियों को भोजन),
ज्ञान दान (पुस्तकों का वितरण),
औषधि दान (जरूरतमंदों को दवा),
अभय दान (जीवों को हिंसा से मुक्त करना) करते हैं।
वर्षीतप का पारायण
इस दिन जैन साधु-साध्वियाँ और श्रावक-श्राविकाएं वर्षीतप जैसी कठोर तपस्याओं का समापन करते हैं। यह व्रत करीब 13 महीनों तक चलता है, जिसमें तपस्वी केवल गर्म जल पर जीवनयापन करते हैं। अक्षय तृतीया को यह व्रत पूर्ण होता है और तपस्वी गन्ने के रस से उपवास तोड़ते हैं।
गन्ने के रस का प्रतीकात्मक महत्व
गन्ने का रस केवल एक पेय नहीं, बल्कि प्रतीक है उस ऐतिहासिक क्षण का जब ‘आहार’ पहली बार समर्पण, श्रद्धा और भक्ति के साथ प्रदान किया गया। आज भी जैन अनुयायी गन्ने के रस का दान करते हैं और भगवान आदिनाथ और राजा श्रेयांस के उस अद्वितीय संवाद को स्मरण करते हैं।
वैज्ञानिक और सामाजिक दृष्टिकोण
अक्षय तृतीया को अबूझ मुहूर्त माना जाता है — इस दिन कोई भी शुभ कार्य जैसे विवाह, गृहप्रवेश, व्यापार प्रारंभ आदि बिना मुहूर्त के किए जा सकते हैं। यह दिन सूर्य और चंद्रमा दोनों की उच्च स्थिति का द्योतक है, जिससे मनोबल और मानसिक ऊर्जा में वृद्धि होती है। साथ ही, तप और संयम से स्वास्थ्य में भी लाभ प्राप्त होता है।
इतिहास में दर्ज-ब्रिटिश सिक्का
इतिहासकारों के अनुसार, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1818 में अक्षय तृतीया के अवसर पर एक आने का विशेष सिक्का जारी किया था। इसमें भगवान ऋषभदेव को राजा श्रेयांस से गन्ने का रस स्वीकार करते हुए दिखाया गया है — यह घटना भारतीय संस्कृति में दान और धर्म की अभिव्यक्ति का प्रमाण बन गई।
आत्मकल्याण की अमर परंपरा
अक्षय तृतीया केवल पर्व नहीं, बल्कि मानवता, परोपकार और आत्मशुद्धि की शिक्षा है। यह वह दिन है जब:
दान की परंपरा ने जन्म लिया,
मौन ने संवाद रचा,
और पुण्य ने अक्षय रूप धारण किया।
हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि सच्चा दान केवल पदार्थ का नहीं, भावना का होता है। श्रद्धा, त्याग और समर्पण ही उसे अक्षय बनाते हैं।
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